Wednesday, January 16, 2019

शमशेर बहादुर सिंह

आये भी वो गये भी वो' 'गीत है यह, गिला नहीं।'
हमने ये कब कहा भला, हमसे कोई मिला नहीं।
आपके एक ख़याल में मिलते रहे हम आपसे
ये भी है एक सिलसिला गो कोई सिलसिला नहीं।
गर्मे-सफर हैं आप, तो हम भी हैं भीड़ में कहीं।
अपना भी काफ़िला है कुछ आप ही का काफ़िला नहीं।
दर्द को पूछते थे वो, मेरी हँसी थमी नहीं,
दिल को टटोलते थे वो, मेरा जिगर हिला नहीं।
आयी बहार हुस्‍न का खाबे-गराँ लिये हुए,
मेरे चमन को क्‍या हुआ, जो कोई गुल खिला नहीं।
उसने किये बहत जतन, हार के कह उठी नज़र,
सीना-ए-चाक का रफू हमसे कभी सिला नहीं।
इश्‍क़ का शायर है ख़ाक, हुस्‍न का जिक्र है मज़ाक़
दर्द में गर चमक नहीं, रूह में गर जिला नहीं।
कौन उठाये उसके नाज, दिल तो उसी के पास है;
'शम्‍स' मजे में हैं कि हम इश्‍क में मुब्तिला नहीं।
~शमशेर बहादुर सिंह

हिंदी वाले काफी समय से प्रयाग लिखते रहे हैं। पुराना नाम आम बोलचाल और संस्थान जैसे प्रयाग संगीत समिति जैसी जगह इस्तेमाल होता ही रहा है।
इलाहाबाद और प्रयाग दोनों साथ साथ ही रहे हैं जैसे इलाहाबाद जंक्शन और प्रयाग स्टेशन दोनों साथ ही रहे हैं।
दिल्ली को आने वाली प्रयागराज एक्सप्रेस ट्रेन का नाम भी उसी प्रचलन को आगे बढ़ाता है।
शमशेर बहादुर सिंह भी अपनी किताब में वही लिखते हैं। पुराना नाम चलता रहा है बशर्ते अब इलाहाबाद नहीं चलेगा।
जब जिसकी हुकूमत रहती है वो अपने निज़ाम में नाम रखता, बनाता और बिगाड़ता है। इससे क्या फर्क पड़ता है।

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