आज के ज़माने में कोई पूछ सकता है कि एक राजनीतिक पार्टी को पैरा मिलिट्री फोर्स की क्या ज़रूरत हो सकती है?
१९२० के आसपास जर्मनी में नाज़ी पार्टी की अपनी एक पैरा मिलिट्री थी। नाम था "एस ए" स्टार्म एप्तेलन या स्टार्म ट्रूपर्स।
पर ये फोर्स आये दिन कम्यूनिस्ट पार्टी के ऐसे ही स्टार्म ट्रूपर्स की गैंग से नाज़ी पार्टी को बचाने के लिए खड़ी की गयी ।
आये दिन जो हम कार्यकर्ताओं के मर्डर की घटना अखबारों में पढ़ते रहते हैं ये उस समय भी होते रहते थे।
हिटलर की सभा जब बियर हॉल में होती तो "एस ए" के ये लोग बियर हॉल की सुरक्षा में लगे रहते।
धीरे धीरे ये फोर्स बड़ी होने लगी। प्रथम विश्व युद्ध के बेरोजगार सैनिक एस ए ज्वाईन करने लगे। फिर एस ए का आतंक बढ़ने लगा। एस ए का इन चार्ज एक सर्विंग आर्मी ऑफिसर अर्नेस्ट रोम था। उसने बहुत बाद में आर्मी से इस्तीफा दिया।
रेगुलर आर्मी के लोग ही इनको ट्रेनिंग देते थे ।
इनको ब्राउन शर्ट भी कहा जाता था। प्रथम विश्व युद्ध के बात क्योंकि खाकी कपड़े सस्ते और आसानी से मिल जाते थे इसलिए ऐसी ड्रेस रखी।
एस एस की ड्रेस काली होती थी जिसका ठेका ह्यूगो बॉस जो कि आज की एक नामचीन फैशन डिजाइन कंपनी है के संस्थापक ह्यूगो बॉस को मिला था।
विरोधियों को मारना, यहूदियों को मारना आम हो गया। एस ए की शक्ति का अंदाज़ा इस लिहाज से लगाया जा सकता है कि ये फोर्स ३० लाख की संख्या में थी १९३० के आस पास , जबकि जर्मन आर्मी मात्र एक लाख।
बाद में एस ए के मुखिया अर्नेस्ट रोम ने सुझाव दिया कि आर्मी को एस ए में मिला दिया जाय।
हिटलर को जब एस ए से डर लगने लगा तो उसने सभी बड़े एस ए अधिकारियों को एक रात में मरवा दिया। उस रात को नाइट ऑफ लांग नाइफ भी कहा जाता है।
ये काम किया हेनरिक हिमलर की "एस एस" ने जिसने बाद में एस ए की जगह ली और यहूदियों पर अत्याचार की सारी सीमाएँ लांघ दी ।
ऐसे संगठन जब संख्या बल में ज्यादा हो जाते हैं तो उनको रोक पाना संभव ही नहीं है। आप बस तमाशबीन बन कर पूर्ण विनाश का इंतजार कर सकते हैं।
कार्यकर्ता अगर हिंसक हैं इसका मतलब पार्टी भी हिंसक है और यदि पार्टी हिंसक है तो कार्यकर्ता भी होंगे।
राजनीति में , लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं, फासिज्म में, तानाशाही में सिर्फ़ हिंसा की ही जगह है।
ये सब बीमारी के लक्षण हैं । बीमारी बढ़ रही है और बढ़ती चली जायेगी। एक समय के बाद लोग कुछ नहीं कर पाते। बस सब कुछ थमने की राह देखते हैं।
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