सभ्य समाज में कानून धर्म को सुधारने का काम करता है। कायदे से धर्म को खुद ही समय समय पर अपने अंदर की बुराइयों या गलतियों को सही करते रहना चाहिए।
बदलते समय के साथ यदि यह नहीं होता है फिर हस्तक्षेप की ज़रूरत पड़ती है।
धर्म सीधे अर्थों में देखा जाये तो जीने का एक तरीका है जिसमें ये चीज जुड़ी होती है कि मरने के बाद क्या होगा?
अब जीने का तरीका सालों साल एक जैसा तो रहने से रहा। समय बदलता है और साथ ही साथ दुनिया की चीजें बदलती हैं। धर्म वहीं टिका रहता है, जड़ और स्थिर।
यहीं से समस्या शुरू होती है। जैसे रूका हुआ पानी सड़ने लगता है और बदबू शुरू हो जाती है।
ठीक उसी प्रकार धार्मिक क्रियाएँ भी समय के साथ obsolete हो जाती हैं।
लोग कहते तो हैं कि परिवर्तन संसार का नियम है , पर बदलाव से सबसे पीछे यही लोग पाये जाते हैं। बदलने को हरगिज़ तैयार नहीं ।
और बदलें भी क्यों? यही होता आया है , यही होता रहेगा। यही सत्य है , टाईप की दलीलें देते रहते हैं।
भय और अंधविश्वास जड़ता को बढ़ावा देते हैं। यदि सिर्फ विश्वास है तो वहाँ उसके विपरीत अविश्वास की संभावना रहती है। अंधविश्वास में इसकी कोई संभावना नहीं रहती।
अगर समाज सुधार और धर्म सुधार को नयी दिशा कानून के मार्फत मिलती है तो यही राजा राम मोहन रॉय और लार्ड विलियम बेंटिक को आज के भारत की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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