बात ड्रेस कोड या यूनिफार्म की नहीं है, दरअसल धार्मिक चिन्हों की है।
केश, कंघा, कच्छा, किरपाण, कड़ा, चुटिया या शिखा, जनेऊ, हाथ में बाँधने वाला रंगीन धागा, दाढ़ी, मूँछ, टोपी, इत्यादि इत्यादि सब धार्मिक चिन्ह हैं।
जो इंसान मर्द या औरत इन चिन्हों को धारण कर रहा है उसके मूल में धर्म ही है।
अब अगर स्कूल या कॉलेज जाने कि पहली शर्त धार्मिक चिन्हों का त्याग है तो सिख भाई या बहन को कहें कि वो किरपाण का त्याग करके ही स्कूल में दाखिल या प्रवेश कर सकता है। सिख भाई पगड़ी, केश, कंघा, कड़ा उतारकर आयें ।
हिंदू भाई चुटिया कटवा कर और जनेऊ बाहर उतारकर ही क्लास रूम में प्रवेश करें।
यहूदी भाई साईड हेयर या कलम मूंडवा कर और सर की अपनी छोटी टोपी उतार कर ही स्कूल आयें।
मुसलमान भाई क्लीन शेव होकर, बिना टोपी स्कूल आये। मुसलमान बहन बिना हिजाब या बुरका के स्कूल आये।
ईसाई भाई बंधु गले में पहने क्रास को उतारकर स्कूल आयें।
शादीशुदा हिंदु महिला मंगल सूत्र उतारकर स्कूल आये।
शादीशुदा ईसाई भाई वेडिंग रिंग उतारकर आये।
तो ये सारे धार्मिक चिन्ह ड्रेस कोड का हिस्सा हैं और आप सेलेक्टिवली एक के पीछे पड़े हैं बाकि को छोड़।
हैरानी की बात ये है कि मुसलमान पुरुष की दाढ़ी टोपी विमर्श से गायब है, जबकि नफरत उससे भी बराबर की है।
दूसरी बात है स्वयं की इच्छा की।
कई सिख भाई बहन, इन चिन्हों का त्याग कर चुके हैं। महान गायक जगजीत सिंह ने जब केश और दाढ़ी कटवा ली थी और इसकी सूचना अपने पिता को पत्र के माध्यम से दी तो उनके पिता ने उनसे बीसों साल बात नहीं की और नाराज़ रहे। आजकल बहुत से प्रोग्रेसिव युवक युवतियाँ इन चिन्हों का स्वेच्छा से त्याग कर रहें हैं। करना भी चाहिए।
महात्मा गाँधी ने सत्य के प्रयोग पुस्तक में लिखा कि कैसे किसी घाट पर नहाते वक्त किसी साधु ने उनका तिरस्कार किया कि वो शिखा और जनेऊ दोनों नहीं पहने हुए हैं।
तब काठियावाड़ में वैश्य समाज नया नया जनेऊ और शिखा धारण करने लगा था पर गाँधी जी हिंदु धर्म के अप्रतिम समर्थक होते हुए इन दोनों पहचानों से दूर थे और उसके उनके निजी कारण थे।
कारण स्वेच्छा होनी चाहिए, जबरदस्ती नहीं।
हिजाब या बुर्का नहीं पहनने का पहला कारण गरमी से बचाव, दूसरा धार्मिक स्वतंत्रता और तीसरा कुछ भी हो सकता है। पर अगर कोई पहनना ही चाहता है, तो मनाही क्यों हो।
जो विरोध कर रहे हैं वो हिजाब, बुरके में फर्क नहीं बता सकते हैं।
किसी जानकार साहित्यकार ने लिखा कि महिला हिजाब पहनने को अपनी इच्छा बताती है पर वजह क्या है इस बात को लेकर असहज हो जाती है।
चुटिया या शिखा रखने में, दाढ़ी मूँछ रखने में, पगड़ी रखने में, टोपी पहनने में, मंगलसूत्र और घूंघट में, हिजाब में, कितनी इच्छा और स्वतंत्रता है या बंधन है इसका राष्ट्रीय सर्वे तो अवश्य होना चाहिए और यदि व्यक्ति धर्म के डर से, समाज के डर से, भाई बंधुओं के डर से पहने हुए है तो अवश्य उसे प्रोत्साहित करना चाहिए कि वो बंधन मुक्त हो और चिन्हों का सामाजिक त्याग करे।
ऐसे छात्रों को धार्मिक चिन्ह त्याग प्रोत्साहन स्कॉलरशिप योजना के तहत हर महीने कम से कम पाँच सौ रूपये देने चाहिए।
पर ये सब तो होने से रहा।
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