***
होमी भाभा बंबई के एक पारसी परिवार में जन्मे थे। उनके पिता जहाँगीर होरमुसजी भाभा टाटा ग्रुप के लीगल एडवाइज़र थे।
होमी की बुआ मेहरबाई भाभा की शादी सर दोराबजी टाटा के साथ हुई थी जो कि जमशेदजी नुसरवान जी टाटा के लड़के थे और टाटा स्टील के कर्ता धर्ता भी।
सर दोराब जी टाटा के घर होमी भाभा का बचपन से आना जाना था और वो उनकी प्राइवेट लाइब्रेरी इस्तेमाल करते थे पढ़ने के लिए।
दोराब जी टाटा चाहते थे कि होमी भाभा इंजीनियरिंग करें और फिर टाटा स्टील ज्वाइन करें।
होमी भाभा ने कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग में दाखिला ले लिया।
दो साल इंजीनियरिंग करने के बाद अपने पिता को पत्र लिखा कि वो फंडामेंटल रिसर्च करना चाहते हैं न कि इंजीनियरिंग। पिता जी ने कहा कि अगर इंजीनियरिंग में फर्स्ट क्लास लाओगे तो दो साल और फिजिक्स पढ़ने देने को मैं तैयार हूँ।
उस समय लॉर्ड रदरफोर्ड केवेंडिश लैब के हेड थे। और फिजिक्स पढ़ने का सबसे अच्छा समय था क्योंकि अलग अलग तरह के प्रयोग हो रहे थे।
होमी डिरॉक से बेहद प्रभावित थे और थियोरेटकल फिजिक्स पर काफी काम कर रहे थे।
पी एच डी करने के बाद उनको रॉयल सोसाइटी लंदन की तरफ से ब्लैकेट लैब में काम करने के लिए ग्रांट मिल गयी थी। लेकिन तभी द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया जब होमी छुट्टी मनाने हिन्दुस्तान आये थे।
युद्ध की वजह से वो वापस नहीं जा पाये ।
उनका एक रिसर्च पेपर पढ़ कर सी वी रमन ने उन्हें आई आई एस सी बैंगलोर बुलाया।
गौरतलब बात ये है कि १९०९ में आई आई एस सी की स्थापना में टाटा ट्रस्ट का बड़ा योगदान था। टाटा ट्रस्ट ने काफी धनराशि ग्रांट के तौर पर संस्थान को दी और देते रहे।
भाभा आई आई एस सी में पहले रीडर और बाद में प्रोफेसर रहे वो भी दोराबजी टाटा की वजह से क्योंकि ये पोस्ट दोराबजी टाटा द्वारा स्पांसर की गई थी।
बाद में भाभा विश्व युद्ध के बाद बाहर नहीं गये बल्कि यहीं पर वर्ल्ड क्लास रिसर्च इन्स्टीट्यूट बनाना चाहते थे ।
उन्होंने जे आर डी टाटा को इस बाबत पत्र लिखा। जे आर डी टाटा मान गये और टाटा ट्रस्ट से ग्रांट मिलने के बाद टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च खुला।
ये वो दौर था जब हर सांइन्टिस्ट अपना अलग लैब स्थापित कर रहा था।
बैंगलोर में भाभा ने हरीश चंद्र के साथ काम किया जो बाद में बड़े गणितज्ञ बने।
विक्रम साराभाई तब सी वी रमन के गाइडेंस में पी एच डी कर रहे थे। इसकी विशेष अनुमति उन्हें कैम्ब्रिज ने दी क्योंकि युद्ध की वजह से वो भी लंदन नहीं जा पा रहे थे।
विक्रम साराभाई जो कि अहमदाबाद से थे वापस अहमदाबाद चले गये और फिजिकल लैबोरेटरी स्थापित की।
तब तक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च का काफी नाम हो चुका था।
भाभा ने नेहरू जी को पत्र लिख कर एटॉमिक एनर्जी कमीशन स्थापित करने की सलाह दी।
तीन मेंबर की कमीशन का प्रारूप भी उन्होंने ही सुझाया और ये भी कि इस पर नौकरशाही का कोई रोल नहीं होना चाहिए । कमीशन सीधा पी एम को रिपोर्ट करेगा और उसका अपना सचिवालय होगा।
नेहरू जी मान गये। एटॉमिक एनर्जी एक्ट पास हो गया।
भाभा एटॉमिक एनर्जी कमीशन के अध्यक्ष बने और शान्ति स्वरूप भटनागर जो कि सी एस आई आर के अध्यक्ष थे वो मेंबर बने।
स्पुतनिक रॉकेट के १९५९ में लांच होने के बाद विक्रम साराभाई स्पेस टेक्नोलॉजी से प्रभावित हुए।
छोटी सी ग्रांट के साथ काम शुरू हुआ।
बाद में विक्रम साराभाई एटॉमिक एनर्जी कमीशन के अध्यक्ष बने जब भाभा की विमान दुर्घटना में असामयिक मौत हो गयी।
तब फंडामेंटल रिसर्च पर जो काम किया गया , उसने हिन्दुस्तान में साइंस की नई बुनियाद रखी।
टाटा ट्रस्ट का इन सब में बड़ा योगदान रहा।
और द्वितीय विश्व युद्ध का भी ।
क्योंकि अगर युद्ध नहीं होता तो शायद भाभा और साराभाई विदेश में काम कर रहे होते और नोबल पाते।
आज भी मूलभूत समस्याएँ वही है ।
फंडामेंटल रिसर्च के नये आयाम खुलने चाहिए। प्राइवेट सेक्टर को स्पांसर करना चाहिए और लाल फीताशाही कम होनी चाहिए।
No comments:
Post a Comment