धार्मिक भावनाओं से लोग ज्यादा प्रेरित होते हैं बजाय कि जो सामने नज़र आता है उसे कॉमन सेंस से समझ कर।
अगर कोई पर्यावरण वादी कहे कि पक्षियों के लिए पानी की कमी हो गयी है इसलिए बालकनी में किसी पात्र में पानी रखना चाहिए तो कोई नहीं करेगा।
यही बात किसी धर्म ग्रंथ में लिखी हो कि पक्षियों को पानी पिलाना पुण्य का काम है या सुन्नत है तो सब फटाफट करने चल पड़ेंगे।
इस तरह धर्म हमारे कॉमन सेंस को गिरवी रखने का काम करता है ।
हर काम के लिए हम धार्मिक निर्देश ढूंढने लगते हैं।
आजकल तो ये आलम है कि निर्मल बाबा टाइप लोग डिसाइड करते हैं कि समोसे के साथ हरी चटनी खायी जाये या लाल चटनी ।
प्रभु की दया पाने की इंसानी लालसा को भुनाने के लिए बाबाओं , पादरियों और मुल्लों ने बेसिक बिन मांगी और कई बार मांगने पर सलाह देने का धंधा शुरू कर लिया है।
हज़ारों रूपये देकर इनके कार्यक्रम में जाइये और कौन ली चटनी खानी है ऐसा ग्यान ले आइ़ये।
कई सारे मौलाना लोग ने यू ट्यूब चैनल खोल लिया है। जाने कितने डॉलर कमा रहे हैं और लोगों को दातून, दाढ़ी और खज़ूर की फजी़लते बता रहे हैं ।
अगर हम रोजमर्रा की जिंदगी भी अपनी मर्जी से नहीं बिता रहे हैं तो चमन हम हैं और ये लोग हमारी ले रहे हैं।
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